लखनऊ का इमामबाड़ा और शाही बावली की घुम्मकड़ी
इमामबाड़े की दूर तक फैली सीढ़ियां तथा बाईं ओर शाही बावली और दाईं और नायाब मस्जिद के चित्र तत्कालीन वास्तुकला की भव्यता का सजीव चित्रण कर रहे थे. मैंने जूते उतारकर इमामबाड़े …
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इमामबाड़े की दूर तक फैली सीढ़ियां तथा बाईं ओर शाही बावली और दाईं और नायाब मस्जिद के चित्र तत्कालीन वास्तुकला की भव्यता का सजीव चित्रण कर रहे थे. मैंने जूते उतारकर इमामबाड़े …
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अब मैं मध्य बर्थ पर था और पत्नी लोअर बर्थ पर. वह महिला जिससे बर्थ एक्सचेंज की थी वह ट्रेन चलते ही ऐसी निंद्रा में लीं हुई कि सवेरे चाय- नाश्ता की आवाजों के कोलाहल और चलकदमी से ही जागी. जैसी मुझे चिंता रहती है मिडिल या अपर बर्थ की ऐसी कोई दिक्कत तो नहीं हुई क्यूंकि एक बार सोने के लिए बेड पर जाने के बाद फिर तो मैं सवेरे ही उठता हूँ चाहे नींद न भी आये. बस बर्थ में शरीर को घुसाना और फिर स्वयं को समेटना– इन दो क्रियाओं के खतरों के कारण मैं लोअर बर्थ को बेहतर मानता हूं। यदि पत्नी के सहमति नहीं होती तो मैं उन महिला को उपकृत करने वाला नहीं थ. लगभग एक महीना पहले बुकिंग कराओ, लोअर सीट के लिए, और एक क्षण में एक आग्रह पर वह बर्थ आप किसी और को सौंप दें, यह तो कोई बात नहीं हुई. हालांकि पत्नी का सोचना इसके विपरीत है, चूँकि वह भी समय-समय पर अपनी यात्रा में लोअर बर्थ को हथियाने में निपुण है, तो उसके लॉजिक के अनुसार उस बर्थ पर किसी महिला को सोने देने में कुछ भी असहजता नहीं है. और यह कि लोअर बर्थ पर महिलाओं का पहला अधिकार नैसर्गिक रूप से बनता है (रेलवे के नियम चाहे जो कुछ हों).
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अनायास ही मेरी नजर होटल की खिड़की से बाहर की तरफ गयी तो देखा की सभी लोग गंगा माता के मंदिर की तरफ बने घाट की सीढ़ियों पर पसर चुके थे, मतलब साफ़ है की माँ की आरती आरम्भ होने वाली है, हमने भी कमरा लॉक किये और सरपट दौड़े माता की आरती में शामिल होने को। ऑफ-सीजन होने के कारण किसी प्रकार की धक्का-मुक्की का सामना किये बगैर हमे मंदिर के पास ही आरती में शरीक होने का अवसर प्राप्त हुआ और जो दबंग पण्डे वगेरह अक्सर आपको आरती के समय दूर होने के लिए टोकते रहते थे आज वो स्वयं ही आरती की थाल हमारे हाथों में सौंप रहे थे माता की आरती उतारने को, हमें तो यकीं ही नहीं हो रहा था, खैर चलो छोडो। एक और महत्वपूर्ण बात यह थी की इस दरमियान ही मौसम भी करवट बदल चूका था और ग्रीष्म ऋतू अब शरद ऋतू का अहसास करवाने लगी थी, ऊपर से माँ गंगा की लहरों से उठती ठंडी हवाएं हमें बेबस किये जा रही थी वहीँ पर डेरा जमाये रखने को।
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गेट के निकट ही गाड़ी दीवार से सटाकर खड़ी कर हम अपना कैमरे का बैग और पानी की बोतल लिए एंट्री को तैयार थे, लेकिन गेट पर तैनात दो लोगों ने रोकते हुए साफ़ पूछा कि “क्या आप लोग कैथोलिक हैं?”, हम प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे, फिर भी हमने दृढ़ता से उनके प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुए अपनी सम्बद्धता स्पष्ट की. पर उसने हमें साफ़ तौर से एंट्री देने से मना कर दिया. कारण: संडे के दिन १२ बजे तक का समय प्रार्थना के लिए निर्धारित है और उसमे केवल क्रिस्चियन ही जा सकते हैं. और भी तमाम लोग एंट्री की अपेक्षा में वहां मौजूद थे.
कुछ देर बाद फिर से प्रयास करने पर गेटमैन ने एंट्री दे दी हालाँकि अभी १२ बजने में लगभग २० मिनट शेष थे.
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स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर दो पर मैं रणकपुर एक्सप्रेस का इंतज़ार कर रहा था जो समय से आधा घंट ही लेट थी (थैंक गॉड) | मेरे साथ कुल 10 सहयात्री रहे होंगे जिसमे से एक 4-5 स्टूडेंट्स का ग्रुप था | मैं अकेला बैठ सोच ही रहा था की किसी से कुछ वार्ता वगैरह शुरू की जाये तो समय पास हो पर सामने के जीआरपी रूम के खुले दरवाजे से एक पुलिस वाले द्वारा एक पतले दुबले युवक को पीटने की झलक मिली | अब किसी को ट्रेन की फ़िक्र नहीं रही और सभी लोग भिन्न भिन्न एंगल बनाकर दृश्य को देखने की कोशिश करने लगे |
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नमस्कार मित्रो, ऐसे तो प्रतिवर्ष 1-2 धार्मिक स्थल की यात्रा करता रहता हु और हालाकी ये नियम भी कुछ ही सालो से बनाया है…
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वर्षों से जोधपुर राजपुताना वैभव का केन्द्र रहा है। जिसके प्रमाण आज भी जोधपुर शहर से लगे अनेक स्थानों पर प्राचीन इमारतों के रूप में मिल जाते हैं। जोधपुर से 9 किलोमीटर की दूरी पर एक ऐतिहासिक स्थान मौजूद है जिसको मंडोर गार्डन के नाम से पुकारा जाता है। इसी के नाम पर एक ट्रैन का नाम भी रखा गया है-मंडोर एक्सप्रेस जोकि दिल्ली से जोधपुर के लिए चलती है। मैंने भी जोधपुर पहुंचने के लिए इसी ट्रेन का रिजर्वेशन करवाया था। यह ट्रैन शाम को पुरानी दिल्ली से चलती है और सुबह सात बजे जोधपुर पहुंचा देती है।
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बकखाली में ढेरों होटल, रिसोर्ट और लॉज है, जो यहाँ आनेवाले सैलानियों की संख्या के हिसाब से कुछ ज्यादा लगती है. हाँ, समुद्र-तट के सामने वाले होटलों में भीड़ ज्यादा मिलती है. बकखाली का मौसम गर्म है. यहाँ आने का सबसे अच्छा समय नवम्बर से मार्च के बीच होता है, क्योंकि इस वक़्त गर्मी कम रहती है और भीड़ भी ज्यादा होती है. होटल में खाना खाने के बाद हमलोगों ने थोड़ी देर आराम किया और लगभग 4 बजे समुद्र-तट पहुंचे. तट पर पहले से काफी चहल-पहल थी. बकखाली के समुद्र-तट से सूर्योदय और सूर्यास्त देखना दोनों ही समान मनोरम अनुभव देता है.
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रॉक गार्डन एक अद्भुत कृति है जहाँ waste चीजों से इतने सारी और बहुत ही सुन्दर आकृतिया बनी हुई हैँ . श्री नेक चंद जी द्वारा बनाया गया ये गार्डन ४० एकड़ में फैला हुआ है। यहां ज्यादा तर आकृतियां वेस्ट बोतल, प्लेट, सिरेमिक टाइल्स इत्यादि से बनी हैं। इसके अलावा यहां एक मानव निर्मित झरना भी है।
सुखना झील तो चंडीगढ़ की सुंदरता को और भी बढ़ा देती है। झील के दूसरी तरफ दिखती शिवालिक पहाड़िया इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाती हैं। यहाँ पहुँच कर हमने बेटे को टॉय ट्रैन में घुमाया। झील में बोटिंग का प्रोग्राम बना ही रहे थे कि झमाझम बारिश शुरू हो गयी। एक बार शुरू हुई तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लिया। वहां घूमने आये सभी लोग शेड के नीचे ही खड़े रहे और उस मौसम का आनंद लेते रहे।
तभी ट्रैन चलने की घोषणा हुई और जल्दी ही ट्रैन रेंगने लगी। वाइफ और बेटा खिड़की से बाहर देखते रहे और मैं आँखें बंद कर दिन भर की प्लानिंग करने लगा। कुछ देर में शताब्दी की सेवाएं शुरू हुई. पानी की बोतल, अखबार और फिर चाय, इन सबके सोचा की थोड़ा सो लेंगे। पर तभी टीटी जी आ पहुंचे। उनको टिकट देखा कर निबटे तो देखा कि बेटा सो गया था। हमने भी आधा घंटा नींद ली की तभी ब्रेकफास्ट आ गया। पंजाब की यात्रा हो तो छोले कुल्चे से बेहतर कुछ नहीं इसलिए हमने भी वही खाया। हिलती हुई ट्रैन में चाय का कप भी हिल रहा था और बेटा इसे देख देख हंस रहा था। ब्रेकफास्ट कर के सोचा कि कुछ और सोया जाये पर ऐसा हुआ नहीं. ट्रैन अम्बाला पहुंची और छोटे साहब के प्रश्न फिर शुरू हुए। यहाँ से ट्रैन चलने के बाद मेरी कमेंटरी भी शुरू हुई. क्यूंकि बाकी दोनों का पहला ट्रिप था, इसलिए मैंने अपना ज्ञान भर भर के बंट. राजपुरा से पंजाब शुरू होने के बाद तो ये ज्ञान और बढ़ा. NH 1 साथ दौड़ती ट्रैन, दोनों और गेंहूँ से भरे हुई खेत और बादलों की लुकाछिपी, सचमुच बहुत ही अच्छा सफर था. कुछ देर में ट्रैन लुधिअना पहुंची। यहाँ भूख लगने लगी थी तो हमने अपने साथ लए हुई स्नैक्स की तरफ ध्यान दिया. लुधिअना से चलने के बाद सतलुज नदी का चौड़ा पाट आया. वाइफ हैरान थीं की इस नदी का पानी इतना सफ़ेद कैसे है जबकि यमुना तो बिलकुल अलग है। इसके बाद फगवाड़ा और फिर जलांधर आया. जालंधर पर ट्रैन काफी खाली हो गए थी। क्यूंकि अब बेटा फिर ऊँघने लगा था तो उसे एक ३ वाली खाली सीट पर लिटा दिया और वह जल्दी सो भी गया। हम दोनों भी १ झपकी लेने लगे. ब्यास पहुँचने से पहले ब्यास नदी के दर्शन हुए. खेतों में हरियाली बढ़ चुकी थी. अपने तय समय से २० मिनट लेट, ट्रैन अमृतसर पहुंची. स्टेशन पर टूरिस्ट्स और ख़ास तौर पर स्कूल ग्रुप्स की बहुत भीड़ थी। हमने टैक्सी बुक की हुई थी जो हमें वाघा बॉर्डर घुमा कर वापस होटल छोड़ने वाली थी।
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Tenzin और balli ने मेरा मोबाइल नंबर लिया। मैंने भी उनका नंबर माँगा तो उन्होंने कहा ये नंबर तो हम अब बंद कर देंगे। अब तो सीजन खत्म होने वाला है। हम लोग नवंबर-दिसंबर मे दिल्ली चले जाएँगे। Tenzin दिल्ली ISBT मजनू का टीला के पास Tibet Colony जाने वाला था। balli नोएडा मे सेक्टर-34 मे Tibet market मे दुकान लगाने वाला था। balli ने कहा दिसंबर मे मार्किट आना वहीँ मिल जाऊँगा।
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कुल्लू से बस मे भीड़ हो गई। मैंने भी शराफ़त से सीट छोड़ दी और खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। वैसे तो कुल्लू से मनाली करीब डेढ़ (1hr 30mins ) घंटे का ही रास्ता है लेकिन भीड़ देख कर मैं समझ गया था कि टाइम ज्यादा लगने वाला है। मेरे आगे वाली सीट पर स्कूल के बच्चे बैठे हुए थे। मैंने उनको कैमरा दिया और मेरी एक फ़ोटो खींचने के लिए बोला। कैमरा देख कर बच्चे खुश हो गए और झट से तैयार हो गए।
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